1975 का आपातकाल एवं आज का भारत,आंतरिक इमरजेंसी के चंगुल में कांग्रेस-मनोज द्विवेदी

देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री स्व श्रीमती इंदिरा गाँधी को भारत के सबसे मजबूत प्रधानमंत्री के रुप में हमेशा याद किया जाता रहेगा। भारत रत्न, पूर्व प्रधानमंत्री स्व पं अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हे दुर्गा की उपाधि ऐसे ही नहीं दे दी होगी। आजाद भारत की एक ऐसी राजनेता …इकलौती महिला प्रधानमंत्री , जिनकी समझ, दूरदर्शिता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। 25 जून ,1975 की आधी रात उन्होंने अलग- अलग कारणों से देश में आन्तरिक आपातकाल यानी इमरजेंसी की घोषणा की थी। यह भारतीय लोकतंत्र के लिये आज भी काला अध्याय माना जाता है। इंदिरा गाँधी पर आरोप लगा कि उन्होंने सत्ता बचाने के लिये देश पर आपातकाल थोप दिया। एक नेता का ऐसा निर्णय ,जिसमें राजशाही – तानाशाही की बहुत गहरी …बहुत गन्दी बदबू आ रही थी। ना कैबिनेट की बैठक , ना राष्ट्रपति से कोई सहमति…सब कुछ मनमाने तरीके से थोप कर , बाद में कार्यवाही का कोरम पूरा किया गया। बहरहाल , थोक के भाव गुण्डे, मवाली, अराजक तत्वों के साथ कांग्रेस से अलग विचारधारा के राजनैतिक, समाजसेवियों, पत्रकारों पर दमनचक्र का लंबा दॊर चला। जिसने भी आवाज उठाई ,उसे कुचल दिया गया।
आपातकाल! देश के इतिहास का वह काला दिन बन गया जब कुंवारों , नाबालिगों , बूढ़ों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी गयी थी। मीडिया को कुचल कर रख दिया गया। अखबारों में खबरों के प्रकाशन पर नियंत्रण लगा दिया गया । धरना,प्रदर्शन,आंदोलन करने पर रोक लगा दी गयी थी।
आवाज उठाने वाले, सत्ता प्रतिष्ठान का विरोध करने वाले , आंदोलन करने वाले नेताओं,कार्यकर्ताओं, सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों को जेलों में डालकर बुरी तरह प्रताड़ित किया गया था। जब-जब वह 25 जून की तारीख आती है, कांग्रेस का काला स्याह चेहरा जनता के सामने आ जाता है। बहरहाल ! इमरजेंसी , उसके कारणों- परिणामों- प्रभाव पर लंबी चर्चा होती रही है , आगे भी होती रहेगी।
इमरजेंसी का एक दूसरा स्थायी प्रभाव भी था,जिसने कांग्रेस की मानसिकता को उजागर करते हुए , बाद में हुए बहुत से नेताओं की कार्यप्रणाली पर गहरा असर डाला। 1975 के बाद अधिकांश समय देश की सत्ता कांग्रेस के इर्द – गिर्द घूमती रही। इमरजेंसी के समय इंदिरा जी के साथ परछाई की तरह रहने वाले , नसबंदी अभियान के पर्याय बन चुके संजय गांधी कांग्रेस में अगले शीर्ष नेतृत्व के रुप में स्थापित होते जा रहे थे। आश्चर्यजनक रूप से इंदिरा गाँधी के बडे सुपुत्र राजीव गांधी ने इमरजेंसी कार्यकाल में देश से कोई वास्ता नहीं रखा। वे पायलट थे, इटैलियन सोनिया से विवाह कर ,अधिकांश समय उनका विदेशों में ही बीतता रहा। एक प्लैन क्रेश में संजय गांधी की संदिग्ध मृत्यु के बाद भी उन्होंने राजनीति में बहुत सक्रियता दिखलाई नहीं । लेकिन इंदिरा जी की हत्या के बाद कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेताओं को परे धकेलते हुए राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री बनाया गया। इंदिरा गाँधी की हत्या की सहानुभूति लहर पर राजीव को प्रचण्ड बहुमत मिला। श्रीलंका समझौता उनकी मनमानी का प्रतीक थी। जिसमे विदेशी धरती पर बेवजह हजारों भारतीय सैनिकों की शहादत हुई। आतंकी हमले के अंदेशे के बावजूद राजीव गाँधी श्रीपेरुंबदूर की चुनावी सभा मे भीड में गये तथा आतंकवादी हमले में मारे गये। उनकी हत्या के बाद एक बार फिर सहानुभूति की लहर पर सवार कांग्रेस बीच के लगभग छ: वर्षों को छोडकर 2014 तक सत्ता में काबिज रही।
इमरजेंसी काल खण्ड के बाद कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के आचरण में मनमाने निर्णय करने की सनक समय बे समय दिखती रही। सत्ता के साथ संगठन का नेतृत्व भी एक ही परिवार के इर्द गिर्द घूमता रहा। तत्कालीन पी व्ही नरसिंहाराव,तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी तथा फिर यूपीए के दस साल के कालखण्ड में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वक्त सोनिया गांधी परिवार ही सबकुछ होकर रह गया। अब आज स्थिति यह है कि 1975 का आपातकाल , कांग्रेस के भीतर का अघोषित आपातकाल है। पार्टी में संगठनात्मक गतिविधि, उसका विस्तार मृतप्राय है। आन्तरिक लोकतंत्र समाप्त हो चुका है। कांग्रेस के बचेखुचे पदाधिकारियों के लिये सोनिया गांधी परिवार ही देश है। उसकी आन्तरिक व्यवस्था ही लोकतंत्र है तथा इसके तीन शीर्ष नेताओं का कहा ही संविधान है। पीछे हाथ – मुंह बांध कर चलना अनुशासन है। एक परिवार के निर्णय ,उसके कार्यों के विरुद्ध आवाज उठाना, कुछ कहना घोर अनुशासन हीनता है। योग्यता, वरिष्ठता ,नेतृत्व क्षमता की एक परिवार के सदस्यों के सामने कोई कीमत नहीं ।
2019 चुनाव में घटिया प्रदर्शन के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था। तब से आज तक देश की सबसे पुरानी पार्टी अपना नया अध्यक्ष तक नहीं खोज पाई। उसे कार्यकारी अध्यक्ष से इसलिए काम चलाना पड रहा है कि विकल्प दो या तीन हैं, वो भी एक ही परिवार के। पार्टी में
क्षमतावान नेताओं को अध्यक्ष बनाने की नहीं, बल्कि किनारे लगाने की परंपरा है‌ । यह परंपरा उसी इमरजेंसी की छाया है जो पार्टी के भीतर आज भी मजबूती से लागू है। 1975 के इमरजेंसी का भूत , उसके शीर्ष नेतृत्व के भीतर अभिन्न हिस्से की तरह समाहित है… जिसे पार्टी के नेता विक्रम वेताल कि तरह कंधों पर ढोने के लिये अभिशप्त हैं।
प्रतिवर्ष भारत के लोग 25 जून को 1975 का आपातकाल याद करते हैं, तो बरबस ही उन्हे इंदिरा गाँधी की याद ताजा हो जाती है । तब की इंदिरा गाँधी तथा आज के उनके नाती राहुल गांधी के बीच तुलना करने पर आम जनता गुणों , क्षमता, धैर्य, समझ, शक्ति में अन्तर स्पष्ट देख पाते हैं। सिर्फ नैन , नक्श, आवाज मिलने से गुणों का स्थानांतरण हो जाता तो देश में आज भी विक्रमादित्य, सम्राट अशोक, विवेकानन्द, महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों के सच्चे उत्तराधिकारी मिल जाते‌ । इसीलिये इंदिरा की इमरजेंसी तब भले ही देश से समाप्त हो गयी हो, कांग्रेस के भीतर आज भी इमरजेंसी की काली छाया मंडरा रही है।
दूसरी ओर एक राष्ट्र की बात करें तो देश 1975 के आपातकाल के बाद कई बुरे हालातों से गुजर चुका है। कांग्रेस की छाया से अलग 2919 मे देश ने पूर्णबहुमत की मजबूत सरकार देकर लोकतंत्र के सतत मजबूत होने का भरोसा दिलाया है। कोविड- 19 के वैश्विक संकट मे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक आव्हान पर जनता कर्फ्यू तथा फिर राष् व्यापी लाकडाऊन के पीछे की पवित्र मंशा के साथ जनता मजबूती से खडी रही। आज देश कोविड के साथ साथ चीन – पाकिस्तान जैसे देशों के सामने युद्ध जैसी स्थिति में खडा है। काम धंधा बंद होने से वित्तीय स्थिति को मजबूत करने की अलग चुनौती देश के सामने है। तब भी किसी ने इमरजेंसी को याद तक नहीं किया। यह दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र की मजबूती का स्वस्थ संकेत है। जिसे बनाए रखना सभी की जिम्मेदारी है।

-लेखक मनोज द्विवेदी, अनूपपुर, मप्र के वरिष्ठ पत्रकार है।

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