उत्तम कार्य की कार्य प्रणाली भी प्राय: उत्तम होती है। दूसरों की सेवा या सहायता करनी है, तो प्राय: मधुर भाषण, नम्रता, दान, उपहार आदि द्वारा उसे संतुष्ट किया जाता है। परन्तु कई बार इसके विपरीत क्रिया-प्रणाली ऐसी कठोर, तीक्ष्ण एवं कटु बनानी पड़ती है कि लोगों को भ्रम हो जाता है कि कहीं यह दुर्भाव से प्रेरित होकर तो नहीं किया गया। ऐसे अवसरों पर वास्तविकता का निर्णय करने में बहुत सावधानी बरतने पड़ती है। सीधे-सादे अवसरों पर सीधी-सादी प्रणाली से भली प्रकार काम चल जाता है। भूखे, प्यासे की सहायता करनी है, तो वह कार्य अन्न-जल देने के सीधे-सादे तरीके से चल जाता है। किसी दु:खी या अभावग्रस्त को अभीष्ट वस्तुएं देकर उसकी सेवा की जा सकती है। धर्मशाला, कुआं, पाठशाला, अनाथालय, औषधालय आदि द्वारा लोकसेवा की जा सकती है। ऐसे कार्य निश्चय ही श्रे… हैं और उनकी आवश्यकता व उपयोगिता सर्वत्र स्वीकारी जा सकती है। परन्तु कई बार ऐसी सेवा की भी बड़ी आवश्यकता होती है, जो प्रत्यक्ष में बुराई मालूम पड़ती है और उसे करने वाले को अपयश ओढ़ना पड़ता है। इस मार्ग को अपनाने का साहस हर किसी में नहीं होता।
दुष्ट और अज्ञानियों को उस मार्ग से छुड़ाना, जिस पर वे बड़ी ममता और अहंकार के साथ प्रवृत्त हो रहे हैं, साधारण काम नहीं है। सीधे आदमी की भूल ज्ञान से, तर्प से, समझाने से सुधर जाती है पर जिनकी मनोभूमि अज्ञानान्धकार से कलुषित हो, साथ ही जिनके पास कुछ शक्ति भी है, वे ऐसे मदान्ध हो जाते हैं कि सीधी-सादी क्रिया-प्रणाली का उन पर प्राय: कुछ असर नहीं होता। मनुष्य शरीर धारण करने पर भी जिनमें पशुत्व की प्रधानता है, दुनिया में उनकी कमी नहीं है। उन्हें ज्ञान, तर्प, नम्रता, सज्जनता, सहनशीलता से अनीति के दु:खदाई मार्ग से पीछे नहीं हटाया जा सकता। पशु केवल दो चीजें पहचानता है- एक लोभ, दूसरा भय। दाना, घास खिला उसे ललचा कर कहीं भी ले जाइए, वह पीछे-पीछे चलेगा या लाठी का डर दिखा जिधर चाहे उधर ले जा सकते हैं।
भय या लोभ से अज्ञानियों को, कुमार्गगामियों को सन्मार्ग में प्रवृत्त किया जा सकता है। भय उत्पन्न करने के लिए दंड का आश्रय लिया जाता है। लोभ के लिए कोई ऐसा आकषर्ण उसके सामने उपस्थित करना पड़ता है जो आज की अपेक्षा अधिक सुखदायी हो। नशेबाजी, व्यभिचार आदि के दुष्परिणाम को बढ़ा-चढ़ाकर, बताकर कई बार उस ओर चलने वालों को इतना डरा दिया जाता है कि वे उसे स्वत: छोड़ देते हैं।