नई दिल्ली. देश अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) को उनकी 152वीं जयंती पर याद कर रहा है. गांधी ने पूरी दुनिया के अहिंसा का ऐसा मंत्र दिया था जो आज भी प्रासंगिक है. दुनिया भर में गांधीजी को याद करके यह जानने का प्रयास किया जाता है कि वे सत्याग्रही कैसे बने और दुनिया को अहिंसा का पाठ उन्होंने कैसे पढ़ा दिया. इतने सीधे साधे होने के बाद भी बिना किसी करिश्माई व्यक्तित्व के लोग उनके मुरीद कैसे हो जाते थे. बापू की सत्याग्रह की कहानी दक्षिण अफ्रीका (South Africa) से शुरू हुई थी, लेकिन वे वहां कैसे पहुंचे यह बहुत कम लोग जानते हैं.
बचपन से था शर्मीला स्वभाव
गांधीजी उन लोगों में से हैं जिन्होंने अपने बारे में खुल कर बताने में कभी संकोच नहीं किया. अपने आत्मकथा में उन्होंने बताया है कि वे बचपन से ही कितने शर्मीले थे एक वकील होने के नाते उनका यह स्वभावगत गुण उनके व्यवसाय में, यानि वकालत में कितना बाधक साबित हुआ. उन्होंने स्कूल के दिनों से लेकर लंदन में वकालत की पढ़ाई के दौरान तक में इस चुनौती का जिक्र किया है.
भारत में वकालत करने में आई परेशानी
लंदन में वकालत करते समय गांधी जी को बहुत संघर्ष करना पड़ा. फिर भी वे लंदन की संस्कृति के साथ तालमेल बिठाने में सफल रहे. लेकिन जब वे भारत लौटे तब उन्हें अपनी वकालत करने में बहुत परेशानी हुई. उन्हें वकालत का काम नहीं मिला. यहां तक कि जिस तरह की जीवनचर्या जो उन्होंने लंदन में बना ली थी वह उन्हें खूब याद आने लगी थी, लेकिन उनकी पहली समस्या काम था और उसके लिए वे बाहर भी जाने को तैयार थे.
फिर मिला काम तो दक्षिण अफ्रीका का
1893 में गांधी जी को कानूनी सेवाएं देने का मौका मिला. भारतीय मूल के व्यापारी दादा अब्दुलाह ने दक्षिण अफ्रीका के लिए एक साल का करार किया. गांधी जी ने इस काम को स्वीकार किया क्योंकि पहले तो उन्हें काम नहीं मिल रहा था. दूसरे वे यहां की जीवनचर्या से परेशान होकर भी भारत से बाहर जाना चाहते थे. इसके बाद वे अप्रैल 1893 में डरबन दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना हुए.
बदलाव की शुरुआत
गांधी जी में दक्षिण अफ्रीका पहुंचने से पहले कोई बहुत बदलाव नहीं आया था. वे एक जेंटलमैन की तरह वकालत करना चाहते थे. लेकिन हां लंदन जाने के बाद से ही उन्होंने दुनिया भर के धर्मों के बारे में जानना जरूर शुरू कर दिया था. गांधी जी के सत्याग्रही और महात्मा बनने की प्रक्रिया दक्षिण अफ्रीका में ही शुरू हुई थी. और उससे पहले खुद गांधी जी को नहीं पता था कि वे किस तरह के बदलाव से गुजरने वाले हैं.
ट्रेन से बाहर फेंके जाना
पहली बार वे सोचने पर तब मजबूर हुए थे जब उन्हें दक्षिण अफ्रीका के प्रिटोरिया में ट्रेन के फर्स्ट क्लास के डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया था. यहां उन्हें अंग्रेजों का रंगभेद वाला नजरिए बहुत खला था. यहीं से गांधी जी का असमान बर्ताव के खिलाफ काम शुरू हुआ.
अहिंसक विरोध का आगाज
उन्होंने 1894 में नेटल इंडियन कांग्रेस बनाई जिसका काम गोरों का अफ्रीकी और भारतीयों के प्रति दमनकारी बर्ताव के खिलाफ अहिंसक विरोध करना था. लेकिन यह सिर्फ एक शुरुआत थी. उस समय तक भी गांधी जी को लगता था कि वे एक स्थानीय समस्या सुलझा रहे हैं. लेकिन धीरे धीरे लोगों तक की यह धारणा बदलती गई.गांधीजी का अब दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों के लिए एक कानूनी सलाहकार से भी ज्यादा दर्जा मिलने लगा. इसी दौरान उन्हें अंग्रेजों को भारतीय के प्रति भेदभाव तो अत्यंत दमनकारी बर्ताव ने उन्हें एक ताकतवर सत्याग्रही बनाने की ओर धकेला. 1899 में वे भारत आए और यहां से 800 भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका ले गए जहां उनका स्वागत गुस्सैल भीड़ ने किया. लेकिन धीरे धीरे उन्हें भारतीयों के साथ अफ्रीकियों का भी समर्थन मिला. 1906 को उनका पहला सत्याग्रह शुरू हुआ जिसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा